Krishna Janmashtami

वासुदेव’ जो पूर्ण मोक्षदायक है

हिन्दू धर्म के प्रमुख ईष्ट देव भगवान हैं श्री कृष्ण जी।प्रभुप्रेमियों के दिलों में श्रीकृष्ण जी का विशेष स्थान है। विष्णु जी के अवतार कृष्ण जी श्रावण माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुए थे। इसलिए इस दिन को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है। पूरे भारतवर्ष में आज 3 सितंबर को कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जा रही है। कोई कृष्ण को लल्ला, कान्हा, माखनचोर, सांवलिया, लड्डू गोपाल तो कोई कृष्णा कह कर प्रेम से पुकारता है। जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण की जन्म नगरी मथुरा भक्ति के रंगों में जीवंत हो जाती है।

प्रत्येक त्योहार में लोकवेद की अहम भूमिका रही है।
लोकवेद के अनुसार जन्माष्टमी में स्त्री-पुरुष बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झांकियां सजाई जाती हैं और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है। और रासलीला का आयोजन होता है।
स्कन्द पुराण के मतानुसार जो भी व्यक्ति जानकर भी कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत नहीं करता, वह मनुष्य जंगल में सर्प और व्याघ्र होता है। भविष्य पुराण का वचन है- भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में कृष्ण जन्माष्टमी व्रत को जो मनुष्य नहीं करता, वह क्रूर राक्षस होता है। एक मान्यता के अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में जब कृष्णाष्टमी हो तो उसमें कृष्ण का अर्चन और पूजन करने से तीन जन्मों के पापों का नाश होता है। लेकिन कृष्ण जी खुद अपने कर्म के पाप प्रभाव को नहीं काट सके तो भक्तों के कैसे काटेंगे। (पुराणों में लिखित मत ब्रह्मा जी का है पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का नहीं है।)
जिस समय गीता जी का ज्ञान बोला जा रहा था, उससे पहले न तो अठारह पुराण थे, न ग्यारह उपनिषद् और न ही छः शास्त्र थे। उस समय केवल पवित्र चारों वेद ही शास्त्र रूप में प्रमाणित थे और उन्हीं पवित्र चारों वेदों का सारांश पवित्र गीता जी में वर्णित है।

व्रत करना गीता अनुसार कैसा है?
श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में व्रत/उपवास करने को मना किया गया है कि हे अर्जुन! यह योग (भक्ति) न तो अधिक खाने वाले की और न ही बिल्कुल न खाने वाले की अर्थात् यह भक्ति न ही व्रत रखने वाले, न अधिक सोने वाले की तथा न अधिक जागने वाले की सफल होती है। इस श्लोक में व्रत रखना पूर्ण रुप से मना है। जो ऐसा कर रहे हैं वह शास्त्र विरुद्ध साधना कर रहे हैं।

नारद जी को चाहिए था हरि रूप
नारद मुनि ने ब्याह रचाने का मन बनाया तो अपने विष्णु जी के पास हरि रूप मांगने पहुंच गए (एक हरि रूप विष्णु जी जैसा और दूसरा हरि बंदर जैसा )। नारदमुनि की प्रार्थना सुन विष्णु जी ने कहा, तथास्तु।
नारद जी ने सोचा अब मैं विष्णु जी की तरह खूबसूरत दिखाई देने लगा हूं। यह सोच स्वयंवर सभा में जा बैठे। मन में यह विचार किए बैठे थे कि ,”कन्या मुझे देखते ही अपना वर चुन लेगी और वरमाला तो मुझे ही पहनाएगी”। स्वयंवर योग्य कन्या नारद जी को अनदेखा कर आगे बढ़ गई। यह देख नारद जी बहुत आहत हुए और अपने साथ वाली कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से पूछने लगे। यह कन्या मेरी तरफ क्यों नहीं देख रही। उस व्यक्ति ने सामने पड़े बर्तन को जिसमें जल था उसे नारद जी के आगे कर दिया। नारद जी को जल में चेहरा देखने को कहा, अपना चेहरा जल में देख, गुस्से में आग बबूला नारद जी वह सभा छोड़ सीधा विष्णु जी के पास पहुंचे और गुस्से में उन्हें बंदर जैसा चेहरा देने के कारण श्राप दे डाला की जैसे आज आपने मुझे स्त्री वियोग में दुख दिया है आप भी एक पूरा जीवन स्त्री वियोग में बिताएंगे। आप को अपने किए का कर्म फल भोगना पड़ेगा।

आइए जानते हैं विष्णु जी को क्यों लेना पड़ा राम अवतार
नारद जी के श्राप वश विष्णु जी को त्रेतायुग में राम बनकर जन्म लेना पड़ा और विवाह होते ही वनवास गमन, फिर रावण द्वारा सीता अपहरण, सीता को रावण की कैद से वापिस लाना और फिर धोबी के कहने पर सीता का त्याग कर देना। राम जी का पूरा जीवन स्त्री वियोग में बीता। अंत में राम जी ने सरयू नदी में जल समाधि ले ली।
सीता को रावण के चंगुल से बचाने के लिए राम जी को हनुमान जी की वानर सेना की मदद लेनी पड़ी थी। भगवान होते हुए भी वह अकेले सीता को वापस लाने में समर्थ नहीं थे? राम जी भयभीत थे इसलिए उन्होंने धोखे से सुग्रीव के भाई बाली का पेड़ की ओट लेकर वध किया था (क्योंकि बाली बहुत शक्तिशाली था उसके सामने जो भी योद्धा युद्ध के लिए आता तो उसका आधा बल बाली के शरीर में चला जाता था)। बाली ने अंतिम समय में राम जी से पूछा की आपने धोखे से मेरी हत्या क्यों की? तब राम जी ने कहा जब मैं द्वापरयुग में कृष्ण रूप में आऊंगा तो तुम्हारा बदला चुकाऊंगा।

“बदला कहीं न जात है, तीन लोक के माही”।
विष्णु जी जब राम रूप में मृतलोक में आए थे तो पूरा जीवन कष्टमय रहा। भगवान होकर भी अपने प्रारब्ध के कर्म नहीं काट सके। सीता लक्ष्मी जी का अवतार थी और विवाह होते ही वनवास मिल,रावण उठा कर ले गया, बारह वर्ष तक न ठीक से आहार मिला और रावण की वासना से स्वयं को बचाती रहीं। इस लोक में तो स्वर्ग से आए भगवान भी सुरक्षित नहीं है। जो भगवान अवतार रूप में आने पर भी अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकते हैं वह साधक की पुकार पर कैसे पहुंचेंगे?

द्वापरयुग में लिया कृष्ण अवतार
द्वापरयुग में कृष्ण जी के 56 करोड़ की आबादी वाले यादव कुल का आपस में लड़ने से नाश हो गया था। जिसे श्रीकृष्ण जी लाख यत्न कर भी नहीं रोक पाए थे। इस सबसे दुखी होकर कृष्ण जी वन में एक वृक्ष के नीचे एक पैर पर दूसरा पैर रखकर लेटे हुए थे। वृक्ष की छाया में विश्राम कर रहे कृष्ण जी के एक पैर में पदम (जन्म से ही लाल निशान था) जो की सूर्य की रोशनी में हिरन की आंख की तरह चमक रहा था। शिकारी शिकार की तलाश में वन में घूम रहा था। तभी दूर से शिकारी ने देखा वहां पेड़ के नीचे हिरन है। उसने पेड़ की ओट लेकर ज़हर में बुझा हुआ तीर हिरन की आंख समझ कर छोड़ दिया और वह ज़मीन पर लेटे हुए कृष्ण जी के पैर में पदम पर जा लगा। तभी कृष्ण जी चिल्लाए कि हाय ! मर गया। शिकारी घबराया हुआ उनके पास दौड़ कर आया और देखकर रोने लगा। अपने अपराध की क्षमा याचना करने लगा। कृष्ण जी ने उससे कहा, आज तेरा बदला पूरा हुआ। शिकारी बोला हे महाराज ! कौन सा बदला? आपसे तो सभी प्रेम करते हैं। आप की और मेरी कोई दुश्मनी भी नहीं है? तब कृष्ण जी ने उसे त्रेतायुग वाला सारा वृत्तांत कह सुनाया और उससे कहा की तू जल्दी यहां से भाग जा वरना तुझे सब मार डालेंगे। बस मेरा संदेश अर्जुन तक पहुंचा दे की जल्दी मुझसे यहां आकर मिले। अर्जुन के वहां पहुंचने पर कृष्ण जी ने उसे यह कहा की आप पांचों भाई हिमालय पर जाकर तप करते हुए शरीर त्याग देना और कृष्ण जी तड़पते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए। अर्जुन वहां खड़ा खड़ा सोच रहा है कि यह कृष्ण भी बड़े बहरूपिया, छलिया थे। महाभारत के युद्ध के दौरान कह रहे थे कि अर्जुन तेरे दोनों हाथों में लड्डू है। युद्ध में मारा गया तो सीधा स्वर्ग जाएगा और जीत गया तो राजा बनेगा।

कबीर, राम कृष्ण अवतार हैं, इनका नाहीं संसार।
जिन साहब संसार किया, सो किनहु न जनम्यां नारि।।

उपर्युक्त सत्य विवरण से आप स्वयं यह निर्णय कर सकते हैं कि तीन लोक के मालिक (पृथ्वी,पाताल और स्वर्ग) विष्णु जी भी जन्म और मृत्यु, श्राप, कर्म बंधन से स्वयं को नहीं बचा सके तो अपने साधक की रक्षा कैसे करेंगे।

जन्म लेने से पहले से ही माता की कोख में कृष्ण जी सुरक्षित नहीं थे। मामा कंस उनके जन्म का इंतजार कर रहा था कि गर्भावस्था से बाहर आते ही इस बालक की हत्या कर दूंगा जो मेरी जान के लिए खतरा है। कृष्ण जी ने भले ही कंस, शिशुपाल, कालयवन, जरासंध और पूतना का वध किया था। जिस कारण लोगों ने इन्हें भगवान मान लिया। गोवर्धन पर्वत अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया तो उन्हें भगवान की श्रेणी में डाल दिया, शेषनाग ने तो पूरी सृष्टि को अपने सिर पर उठाया हुआ है तो उसे आप भगवान क्यों नहीं मानते? विष्णु जी केवल सोलह कलाओं के भगवान हैं और जिसकी शरण में जाने से पूर्ण सरंक्षण मिलेगा वह अनंत कलाओं का परमात्मा है। श्रीकृष्ण स्वर्ग के राजा हैं पृथ्वी पर तो श्राप वश आए और पूरा जीवन जन्म से लेकर मृत्यु तक दुखी रहे। पृथ्वी पर सुख नाम की कोई वस्तु नहीं है। श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 2 श्लोक 12, गीता अध्याय 4 श्लोक 5, गीता अध्याय 10 श्लोक 2 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी कि मेरी तो उत्पत्ति हुई है, मैं जन्मता-मरता हूँ, अर्जुन मेरे और तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, मैं भी नाशवान हूँ। गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में भी कहा है कि अविनाशी तो उसको जान जिसको मारने में कोई भी सक्षम नहीं है और जिस परमात्मा ने सर्व की रचना की है।

श्री कृष्ण ने 16000 ब्याह रचाए, गोपियों के संग रास रचाया, माखन चुराया, गोपियों के वस्त्र चुराए, अपनी ही सगी मामी राधा संग संबंध बनाए फिर भी हम उन पर रीझते हुए नहीं थकते। क्या ऐसा संबंध भगवान की श्रेणी में आने वाले ईश को शोभा देता है। उनकी पूजा करने वाला कोई व्यक्ति यदि ऐसा कर्म संबंध करें तो समाज में क्या वो स्वीकार्य होगा?

आइए जानते हैं कि गीता जी में कौन सा गूढ़ भक्ति रहस्य लिखित है जो सर्व मानव समाज के लिए समझना आवश्यक है।

ब्रह्म (काल) है गीता ज्ञान दाता।
दुनिया समझती है गीता ज्ञान कृष्ण जी ने दिया । नहीं, गीता ज्ञान तो श्रीकृष्ण के शरीर में काल (जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव का पिता) ने प्रवेश कर के दिया। (प्रमाण पवित्र गीता जी अध्याय 1 श्लोक 31 से 39, 46 तथा अध्याय 2 श्लोक 5 से 8) फिर श्री कृष्ण जी में प्रवेश कर काल बार-बार कह रहा है कि अर्जुन कायर मत बन, युद्ध कर। वास्तविकता यह है कि काल भगवान जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का प्रभु है, उसने प्रतिज्ञा की है कि मैं स्थूल शरीर में व्यक्त(मानव सदृश अपने वास्तविक) रूप में सबके सामने कभी नहीं आऊँगा। उसी ने सूक्ष्म शरीर बना कर प्रेत की तरह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके पवित्र गीता जी का ज्ञान (वेदों का सार) कहा। काल(ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए कृप्या पढ़िए पुस्तक ज्ञान गंगा (में सृष्टि रचना का विस्तृत विवरण है)।
जब तक महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हुआ तब तक ज्योति निरंजन (काल – ब्रह्म – क्षर पुरुष) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश रहा। महाभारत का युद्ध समाप्त होते ही काल भगवान श्री कृष्ण जी के शरीर से निकल गया। श्री कृष्ण जी ने श्री युधिष्ठिर जी को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) की राजगद्दी पर बैठाकर द्वारिका जाने को कहा।

गीता में तत्वदर्शी संत की खोज कर भक्ति करने को कहा है।
पूर्ण ब्रह्म की भक्ति के लिए पवित्र गीता अ. 4 श्लोक 34 में पवित्र गीता बोलने वाला (ब्रह्म) प्रभु स्वयं कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति व प्राप्ति के लिए किसी तत्वज्ञानी सन्त को ढूंढ ले फिर वह जैसे विधि बताएं वैसे कर। पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा का पूर्ण ज्ञान व भक्ति विधि मैं नहीं जानता। अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 व 66 में किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है।(इसका सार यह है कि तत्वदर्शी संत की खोज करो और जैसे भक्ति विधि वह बताए उसी अनुसार करते हुए मोक्ष को प्राप्त हो जाओगे)।

ब्रह्म ने अपनी भक्ति को अनुत्तम बताया।
अपनी साधना के बारे में गीता अ. 8 श्लोक 13 में कहा है कि मेरी भक्ति का तो केवल एक ‘ओ3म् ‘ अक्षर है जिसका उच्चारण करके अन्तिम स्वांस(त्यजन् देहम्) तक जाप करने से मेरी वाली परमगति को प्राप्त होगा। फिर गीता अ. 7 श्लोक 18 में कहा है कि जिन प्रभु चाहने वाली आत्माओं को तत्वदर्शी सन्त नहीं मिला जो पूर्ण ब्रह्म की साधना जानता हो, इसलिए वे उदार आत्माएं मेरे वाली (अनुत्तमाम्) अति अनुत्तम परमगति में ही आश्रित हैं।(पवित्र गीता जी बोलने वाला प्रभु स्वयं कह रहा है कि मेरी साधना से होने वाली गति अर्थात् मुक्ति भी अति अश्रेष्ठ है।)

परंतु श्री कृष्ण को अपना इष्ट समझ कर भक्ति करने वालों की मति मारी गई है। यह न गीता कहने वाले से परिचित हैं न गीता में लिखित ज्ञान को समझते हैं। यह तो अपनी कल्पना पर आधारित कृष्ण और राधा की जोड़ी बनाए बैठे हैं। जब राधा कृष्ण से मिलने जाती थी तब यह राधा को अभद्र गालियां देकर उसका जीना दूभर किए हुए थे और आज कलयुग में राधा-कृष्ण के नाम की माला जपते हैं। राधा कृष्ण के नाम का मंत्र मुक्ति दायक नहीं हैं। न ही यह गीता में लिखित है।
मीरा को भी जब असली राम पूर्ण परमात्मा की जानकारी हुई तो उसने कृष्ण से प्रश्न किया की कोई आप से भी बड़ी शक्ति है क्या जो पूर्ण मोक्षदायक है। कृष्ण जी ने स्वीकार किया की हां, मीरा। कोई और ही है जो पूर्ण परमात्मा है परंतु मैं उसे नहीं जानता। जो तुझे बता रहा है तू उसी की शरण में जा।
।।इष्ट सोई जो सबका होई, जहां न भेदभाव कछु कोई। अखंडस्वरूप अस्तिबखानो कहैं कबीर निज आतम जानो।।


ब्रह्मा, विष्णु, शिव की भक्ति मोक्षदायक नहीं है।
श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी तथा ब्रह्म व परब्रह्म की भक्ति से पाप तथा पुण्य दोनों का फल भोगना पड़ता है, पुण्य स्वर्ग में तथा पाप नरक में व चौरासी लाख प्राणियों के शरीर में नाना यातनाएं भोगनी पड़ती हैं।
पवित्र गीता अध्याय 9 के श्लोक 20, 21 में कहा है कि जो मनोकामना(सकाम) सिद्धि के लिए मेरी पूजा तीनों वेदों में वर्णित साधना शास्त्र अनुकूल करते हैं वे अपने कर्मों के आधार पर महास्वर्ग में आनन्द मना कर फिर जन्म-मरण में आ जाते हैं अर्थात् यज्ञ चाहे शास्त्रानुकूल भी हो उनका एक मात्र लाभ सांसारिक भोग, स्वर्ग, और फिर नरक व चौरासी लाख योनियाँ ही हैं। जब तक तीनों मंत्र ( ओम तथा तत् व सत् सांकेतिक) पूर्ण संत से प्राप्त नहीं होते।
इसलिए पवित्र गीता जी बोलने वाला ब्रह्म (काल) गीता अ. 7 श्लोक 18 में स्वयं कह रहा है कि ये सर्व ज्ञानी आत्माऐं हैं तो उदार(नेक)। परन्तु पूर्ण परमात्मा की तीन मंत्र की वास्तविक साधना बताने वाला तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण ये सब मेरी ही (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ मुक्ति (गति) की आस में ही आश्रित रहे अर्थात् मेरी साधना भी अश्रेष्ठ है।

गीता बोलने वाला काल अर्जुन को पूर्ण परमात्मा की शरण में जाने को कह रहा है।
पवित्र गीता जी अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्व भाव से उस पूर्ण परमात्मा की शरण में चला जा। जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम(सतलोक) को प्राप्त होगा। पवित्र गीता जी को श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके ब्रह्म(काल) ने बोला, फिर कई वर्षों उपरांत पवित्र गीता जी तथा पवित्र चारों वेदों को महर्षि व्यास जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके स्वयं ब्रह्म(क्षर पुरुष) द्वारा लिपिबद्ध भी स्वयं ही किए हैं। इनमें परमात्मा कैसा है, कैसे उसकी भक्ति करनी है तथा क्या उपलब्धि होगी, सतज्ञान का पूर्ण वर्णन है। परन्तु पूजा की विधि केवल ब्रह्म(क्षर पुरुष) अर्थात् ज्योति निरंजन-काल तक की ही है।

गीता बोलने वाला काल कहता है की ‘‘वासुदेव’’ ही सब कुछ है ( वासुदेव कृष्ण नहीं पूर्ण ब्रह्म परमात्मा कबीर है ) यही सबका सृजनहार है। यही पापनाशक, पूर्ण मोक्षदायक, यही पूजा के योग्य है। यही (वासुदेव ही) कुल का मालिक परम अक्षर ब्रह्म है। केवल इसी की भक्ति करो, अन्य की नहीं। जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में नहीं आता, जिस परमेश्वर से संसार रुपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है अर्थात् जिस परमेश्वर ने सर्व की रचना की है, उसी की पूजा करो।
वह परमेश्वर पूर्ण ब्रह्म कबीर साहेब हैं जो तत्वदर्शी संत की भूमिका में संत रामपाल जी रूप में धरती पर अवतरित हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु, शिव के दादा और काल के पिता और हम सब के भी जनक हैं।

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